अगर सही ढंग से सोचें तो लगेगा, ‘हम कितने भाग्यशाली हैं कि हमें भगवान ने अवसर दिया है कि अच्छे कर्म करने का भक्ति करने का ,शांति और ज्ञान पाने का।’ सही कर्म का उपयोग करके ही सिद्धार्थ भगवान बुद्ध बने,छोटी सी उम्र में ही उन्हें समझ आने लगा कि सारा संसार दुखों से भरा है, अपने गलत कर्म और गलत विचारों द्वारा व्यक्ति दुखों को प्राप्त करता है। इसलिए
उन्होंने लोगों को ध्यान का रास्ता बताया कि खुद को जानो और बंधनों से मुक्त हो।
इस संसार में आने के बाद बहुत कम ही व्यक्ति हैं, जो कर्मों के बंधन में न फंसे हों। ज्यादातर मनुष्य के कर्म, भावनाएं ऐसी होती हैं, जो उसे संसारिक जाल में बांधती जाती हैं। जो कर्म परमेश्वरीय प्राप्ति के लिए किये जाते हैं, अर्थात सत्कर्म, सत्प्रवृत्ति, सतभावना, सत्स्वरूप परमात्मा से जुड़े होते हैं, वो मुक्ति का कारण या मुक्त करने वाले होते हैं। गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है कि हर व्यक्ति को कर्म तो करना ही है, लेकिन कर्म कैसा हो, यह जानना बहुत जरूरी है। कर्म तो करो, लेकिन कर्मों को बंधन करनेवाला न बनाएं। कर्म वो, जो हमारे पिछले और अगले जन्म के बंधन को भी काट सकें। कर्म से कर्म बनाया भी जाता है और कर्म से कर्म काटा भी जाता है। ये मनुष्य देह मिली ही इसलिए है कि मनुष्य कर्मों से कर्मों का बंधन काटने का प्रयास करें, जो ऐसा नहीं करता, वो मनुष्य शरीर पाकर भी मूढ़ता में ही रहता है। कर्मों द्वारा ही व्यक्ति दुख, चिंता, बीमारी व मृत्यु पाता है, कर्मों से ही लालच, क्रोध एव शत्रु बनाता है। जब कर्म बढ़िया करता है, तो कर्मों से अपने आपको भगवान को पाने वाला बना देता है। जो यज्ञार्थ कर्म करते हैं, वो बंधन से मुक्त होते हैं। लेकिन जो स्वार्थवश हो कर कर्म करते हैं, वो कर्म के जाल में फंसते जाते हैं। बुद्धिमान व्यक्ति कर्म से कर्म को काटता है। जिस प्रकार कैंची उलझे धागों को काटने के काम आती है, अपने को काटने के लिए नहीं। परन्तु उलटे विचार करके, लालच, दुख, क्रोध में फंस कर व्यक्ति बहुत बार ‘आत्महत्या ‘का विचार करता है। मेरा जन्म क्यों हुआ, यह सोच कर खुद को कोसता है और कर्म के चक्रव्यूह में और फंसता जाता है।
अगर सही ढंग से सोचें तो लगेगा, ‘हम कितने भाग्यशाली हैं कि हमें भगवान ने अवसर दिया है कि अच्छे कर्म करने का भक्ति करने का ,शांति और ज्ञान पाने का।’ सही कर्म का उपयोग करके ही सिद्धार्थ भगवान बुद्ध बने,छोटी सी उम्र में ही उन्हें समझ आने लगा कि सारा संसार दुखों से भरा है, अपने गलत कर्म और गलत विचारों द्वारा व्यक्ति दुखों को प्राप्त करता है। इसलिए उन्होंने लोगों को ध्यान का रास्ता बताया कि खुद को जानो और बंधनों से मुक्त हो। प्रह्लाद छोटे थे, लेकिन ऐसे कर्म किये,ऐसे विचार किये कि उन्हें भगवान की प्राप्ति हो गयी। उनके पिता उन्हें रोकते-टोकते, डांटते थे, फिर भी वे अपने गुरु की बात याद रखते थे। ध्रुव की सौतली माँ उन्हें मारती थीं, फिर भी ध्रुव ईश्वर-प्राप्ति के रास्ते पर डंटे रहे और ईश्वर को प्राप्त हुए। हर मनुष्य में वो सामर्थ्य है कि वह सुख, दुख, पाप, पुण्य, मित्र, शत्रु यानी सारी सृष्टि को बनाने वाले परमेश्वर को अपने हृदय में रखे। बहुत बार व्यक्ति कर्म अपनी वाह-वाही के लिए करता है, वो कर्म राजसिक कहलाता है। बहुत बार व्यक्ति जो दान करता है, जैसे – किताबें, कपड़े , कुर्सियां इत्यादि सब पर अपना नाम छपवाता है। वो कर्म भी स्वार्थ से ही लिप्त होता है अथार्त जो भी कर्म स्वार्थ को पोषने के लिए किया जाता है, उससे कर्मों का बंधन ही बढ़ता है। जो कर्म दूसरों को सताने के लिए किया जाता है, वह दुखों के जालों में और बंधता है। परन्तु जो कर्म भगवान की प्रसन्नता के लिए किए जाते हैं, उसे ही यज्ञार्थ कर्म कहते हैं। तो कर्म-से-कर्म को काटना है, अगर कर्म-से-कर्म को बढ़ा दिया, तो अशांति, दुख पैदा हो जाएगा, जो बंधन की तरफ ले जाएगा। इसलिए ऐसा कर्म करें, जो शांति और मुक्ति की तरफ ले जाये। इसलिए कर्म ही बांधते हैं और कर्म ही मुक्त करते हैं।